झारखंड की पहचान और आदिवासी अस्मिता के प्रतीक, कद्दावर नेता व झारखंड के जनक कहे जाने वाले ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया और पूरे राजकीय सम्मान के साथ वे पंचतत्व में विलीन हो गए। उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़े जनसैलाब ने यह साबित कर दिया कि गुरु सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि एक युग थे। शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष, साहस और समर्पण की गाथा है। 1944 में नेमरा गांव,रामगढ़, बिहार जो अब झारखंड में है, में जन्मे गुरु ने अपना पूरा जीवन झारखंड आंदोलन और आदिवासी अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया। 1970 के दशक में उन्होंने महाजनों, जमींदारों और शोषण के खिलाफ निर्णायक लड़ाई छेड़ी, जिसने उन्हें आदिवासियों के दिलों में अमर कर दिया। इसी संघर्ष और नेतृत्व क्षमता के कारण उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि मिली, यानी पूरे प्रदेश का मार्गदर्शक। गुरु के नेतृत्व में झारखंड आंदोलन ने वह गति पकड़ी, जिसने 15 नवंबर 2000 को अलग झारखंड राज्य का सपना साकार किया। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री और कई बार केंद्र सरकार में मंत्री रहे, लेकिन उनकी असली पहचान सत्ता नहीं, बल्कि अपने लोगों के बीच खड़े रहना थी। गुरु ने न सिर्फ राजनीति की, बल्कि एक आंदोलन को जन्म दिया, उसे दिशा दी और उसे मंज़िल तक पहुंचाया। उनका सादा जीवन, तेजस्वी विचार और जनता से गहरा जुड़ाव उन्हें अन्य नेताओं से अलग बनाता था। आज जब दिशोम गुरु पंचतत्व में विलीन हो गए हैं, तब झारखंड उन्हें सिर्फ एक नेता के रूप में नहीं, बल्कि एक युगद्रष्टा, एक पथप्रदर्शक और संघर्ष के पर्याय के रूप में याद कर रहा है। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।
