बिजली की लाइटों ने छीनी पारंपरिक कला की रोशनी, कुम्हार बोले – अब दीयों की जगह बल्ब ने ले ली है
पाकुड़। दीपावली की आहट के साथ शहर और गांव में रोशनी की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। लेकिन इस रोशनी के बीच अब वह पारंपरिक चमक धीरे-धीरे गायब हो रही है, जो कभी मिट्टी के दीयों से फैलती थी। आधुनिक लाइटों और रंग-बिरंगी झालरों ने अब कुम्हारों की दुनिया को फीका कर दिया है।
कुम्हारों की घटती चमक।
पहले दीपावली का अर्थ था घर-घर में मिट्टी के दीयों की कतारें, लेकिन अब ज्यादातर लोग बिजली की झालरों से सजावट करना पसंद करते हैं। इससे कुम्हारों के चाक की रफ्तार थम गई है।
स्थानीय कारीगर गोपाल पंडित बताते हैं, हम पहले ही मिट्टी खरीदकर जमा कर लेते हैं, क्योंकि इस समय खेतों में धान की फसल का काम अधिक रहता है। मिट्टी खरीदने में 700 से 1000 रुपये तक खर्च आता है। इसी मिट्टी से दीये, घड़ा, सुराही और दुहिया बनाते हैं।
वहीं धर्मेंद्र पंडित कहते हैं, एक खेप तैयार करने में करीब 20 से 25 दिन लग जाते हैं। इससे 5 से 7 हजार रुपये तक की आमदनी हो जाती है, लेकिन मेहनत के मुकाबले मुनाफा बहुत कम है।
बिजली के चाक ने बढ़ाया खर्च।
कुम्हार सागर पंडित बताते हैं, अब ज्यादातर चाक बिजली से चलते हैं। सरकार ने 200 यूनिट तक बिजली फ्री की है, लेकिन काम ज्यादा होने के कारण बिल बढ़ जाता है। पहले पैर से चलने वाले चाक पर खर्च नहीं आता था।
परंपरा की पहचान खतरे में।
कुम्हारों की मेहनत और पारंपरिक कला आज भी दीपावली की असली पहचान है, लेकिन बदलते दौर में यह कला धीरे-धीरे मिटती जा रही है। जो दीये कभी हर आंगन की शोभा बढ़ाते थे, आज वही दीये बाजार के कोने में सिमट गए हैं। लोगों की सुविधानुसार बनी एलईडी लाइटों ने जहां सजावट को आसान कर दिया है, वहीं कुम्हारों की मेहनत की कीमत घटा दी है। अब सवाल यह है कि क्या आने वाले सालों में दीपावली की रोशनी में फिर से मिट्टी के दीयों की लौ टिमटिमाएगी?

