सरकारी सिस्टम की संवेदनहीनता पर करारा तमाचा
जो गांवों को संवारते हैं, उनके ही घर उजड़ रहे हैं: एक मनरेगा कर्मी
पाकुड़: जब देश भर में मजदूर दिवस पर श्रमिकों के योगदान को सम्मान देने के लिए भाषण दिए जा रहे हैं, आयोजनों में ताली बजाई जा रही है और मंचों से उनके अधिकारों की बातें हो रही हैं, तब ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है—खासतौर पर मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के अनुबंध पर कार्यरत कर्मियों की स्थिति।
न वेतन समय पर, न कोई सुरक्षा
राज्य के विभिन्न जिलों से लगातार यह रिपोर्टें सामने आ रही हैं कि मनरेगा में कार्यरत हजारों कर्मचारी महीनों से वेतन नहीं मिलने, कार्य का अत्यधिक दबाव और अवकाश न मिलने की समस्या से जूझ रहे हैं। छुट्टियों में भी कार्य करना पड़ता है, लेकिन ओवरटाइम या क्षतिपूर्ति अवकाश जैसी कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है।
स्व. श्याम दत्त शुक्ला की मौत ने खोले विभागीय हालात
हाल ही में एक सहायक अभियंता श्याम दत्त शुक्ला की आकस्मिक मृत्यु ने पूरे विभाग की कार्यशैली और संवेदनहीनता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बताया गया कि उन्हें कई महीनों से वेतन नहीं मिला था, सामाजिक सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं था और अत्यधिक मानसिक तनाव में वे लगातार कार्यरत थे।
सामूहिक अवकाश: एक मौन विरोध
मनरेगा कर्मियों ने मजदूर दिवस की पूर्व संध्या पर सामूहिक अवकाश लेकर एकजुटता दिखाई और अपने विरोध को शांति से दर्ज किया। उनका कहना है कि जब तक स्थायीत्व, वेतन की नियमितता, और समान अधिकारों की बात नहीं मानी जाएगी, तब तक वे इसी तरह अपनी आवाज़ उठाते रहेंगे।
सरकार की दोहरी नीति पर उठे सवाल
मनरेगा कर्मचारी संघों का आरोप है कि सरकार निजी क्षेत्र में श्रमिक कानूनों के पालन की बात तो करती है, लेकिन खुद अपने विभागों में श्रमिक अधिकारों का हनन कर रही है।
बात सिर्फ संविदा की नहीं, सम्मान की है
अनुबंध कर्मियों को न तो सरकारी कर्मचारियों जैसी सुविधाएं मिलती हैं, न ही सामाजिक सुरक्षा। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है—क्या आज के पढ़े-लिखे, प्रशिक्षित और जिम्मेदार कर्मी आधुनिक दौर के ‘बंधुआ मजदूर’ बनकर रह गए हैं?
